एफ़डीआई पर भारत सरकार - बढ़िया ड्रामा


खुद नहीं जानते कि क्या करें!

मुस्कुराहट के पीछे वोटर खोने का डर तो नहीं!
नई दिल्ली: हमारे देश की सबसे बड़ी समस्या खुद यहाँ की सरकारी व्यवस्था बन गई है। अभी-अभी से हमारी सरकार अपने वोटरों को लुभाने की चिंता करने लगी है। केंद्र सरकार की यह चिंता किराना में एफ़डीआई के मुद्दे पर अचानक उसके पलटे रुख से दिखाई दे रही है। दो दिन पहले तक जो सरकार इस मुद्दे पर झुकने के लिए तैयार नहीं थी, आज अचानक उसने उसी मुद्दे को ठंडे बस्ते में डाल दिया है।

हालांकि इस मुद्दे पर लगभग हर राज्य ने अपनी ओर से कड़ी प्रतिक्रिया दी थी। पिछले 1 दिसंबर, 2011 को व्यापारियों ने भारत बंद का ऐलान भी किया था। विपक्षी दल ही नहीं, केंद्र सरकार के सहयोगी दलों ने भी इस मुद्दे पर खरी-खोटी सुनाई थी। बावजूद इसके, सरकार झुकने के मूड में नहीं दिख रही थी। लेकिन अचानक ऐसा क्या हो गया कि सरकार ने अपने ही फ़ैसले पर यू-टर्न ले लिया है? या यों कहें कि सरकार ने उस मुद्दे को लगभग छोड़ दिया है?

लोगों का तो कहना है कि सरकार ने यूपी चुनाव को देखते हुए अचानक ही इस मुद्दे को छोड़ दिया है, लेकिन आम जनता अभी भी इस सफ़ाई से संतुष्ट नहीं है। लोगों से यह भी सुना जा रहा है कि जो सरकार कुछ दिन पहले तक पेट्रोल की कीमतों के मामले में जनता की नहीं सुन रही थी, उसे एफ़डीआई के मुद्दे पर भी जनता से कोई डर नहीं था। फिर आखिर ऐसा क्या हो गया कि सरकार का रुख बदल गया?

लगभग हर मुद्दे पर अपनी ओर से बेबाक टिप्पणी करने वाले कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह हों या युवा कांग्रेसी मनीष तिवारी, सभी ने इस मसले पर कुछ बोलने से पूरी तरह से बचने की कोशिश की। कांग्रेस के परिपक्व नेता कहे जाने वाले जनार्दन द्विवेदी भी इस मामले पर मीडिया के सामने नहीं आए।

अब तो हमारे देश की बेजुबान जनता दबी जुबान से कहने लगी है कि सरकार ने ऐसा ड्रामा केवल अपने फ़ायदे के लिए ही किया। पहले तो सरकार ने एफ़डीआई की बात पर जनता को डराना-सताना शुरू किया, अब वह खुद ही इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल कर जनता के बीच मसीहा बनने का प्रयास कर रही है।

वैसे भी, हमारे देश के बेजुबानों को तो अत्याचार की आदत सी पड़ी हुई है। चाहे सरकार कोई भी हो, महंगाई के बोझ से उसे बचाने वाला कोई भी नहीं है। ऐसे में अगर हमारी मौजूदा केंद्र सरकार खुद को मसीहा साबित करने के लिए कभी पेट्रोल तो कभी एफ़डीआई का ड्रामा करती भी है, तो इसमें भला उसकी क्या गलती!

क्यों, सही बात है न प्रधानमंत्री जी! ओह, माफ़ कीजिएगा, आप तो कुछ कहेंगे नहीं। केवल इतना बता दीजिए कि हम बेजुबान आखिर दबी जुबान से कुछ पूछें भी तो किससे?

-एक बेजुबान प्रतिनिधि (विवेक पाठक)

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